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मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

नये साल की मुबारकबाद

बढ़ी हुई शेव के साथ
बिस्तर पर
औंधे मुंह पड़े हुए
बावजूद अनिच्छा के
नये साल में घुस रहा हूं,

ख्वाबों की खूबसूरती में
गुजरे हुए कल
और
अतीत की तरह सुनहरे
भविष्य की उम्मीदों को
किनारे करके
वर्तमान सवार है
मेरी पीठ पर
सच सी निर्ममता लिये।

दोस्तो !
तुम नहीं जानते शायद
कि तुम्हारी दुआएं
महज मजाक हैं
खुद को
और मुझे
बहलाने की कोशिश भर।

यदि नहीं तो फिर
सारे मिलकर
शोकग्रस्त हो जाओ
गुजरे हुए उस साल के लिए
जो कभी आया था यकीनन
नये साल की तरह
हम सभी की जिंदगी में ।

- कुमार अजय



शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

बिना क्षितिज के आसमान हो गए...


कुमार अजय की एक ग़ज़ल

सुविधाओं के ही घमासान हो गए
वेतन बढे, छोटे मकान हो गए।

दूर अपनों से इस कदर हुए
बिना क्षितिज के आसमान हो गए।

जिंदगी और मौत भी प्यारी लगीं
प्यार में दोहरे रूझान हो गए।

उल्फत में निकले लब्ज जाने कब
रामधुन-कीरतन-अजान हो गए।

मुश्किलें इस कदर पड़ी मुझ पर
जिंदगी के मसले आसान हो गए।

जिनमें सबकी अपनी अपनी कब्रे हैं
नाजुक आशियाने ही श्मसान हो गए।
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मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

गुलज़ार की एक खूबसूरत कविता


मुझको इतने से काम पे रख लो...

जब भी सीने पे झूलता लॉकेट
उल्टा हो जाए तो मैं हाथों से
सीधा करता रहूँ उसको

मुझको इतने से काम पे रख लो...

जब भी आवेज़ा उलझे बालों में
मुस्कुराके बस इतना सा कह दो
आह चुभता है ये अलग कर दो

मुझको इतने से काम पे रख लो....

जब ग़रारे में पाँव फँस जाए
या दुपट्टा किवाड़ में अटके
एक नज़र देख लो तो काफ़ी है

मुझको इतने से काम पे रख लो...

रविवार, 20 दिसंबर 2009

कुमार अजय की एक ताज़ा ग़ज़ल

उसने मुझ पर उछाले पत्थर...

उसने मुझ पर उछाले पत्थर
मैंने बुनियाद में डाले पत्थर।

तेरी राह में हर मील पे गड़ा हूं
तेरी औकात है तो हिला ले पत्थर।

मेरी तो आदत है सच कहूंगा ही
तू हाथों में लाख उठा ले पत्थर।

हर पत्थर सजदे में झुका है
उसने कुछ ऐसे हैं ढाले पत्थर।

बुरे दौर में रोटी की बात न कर
तलब है तो पी ले पत्थर, खा ले पत्थर।

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कौशल दाधीच की ग़ज़ल



नहीं लिखता ...


उनको ये शिकायत है मैं बेवफ़ाई पे नही लिखता,
और मैं सोचता हूँ कि मैं उनकी रुसवाई पे नही लिखता.

'ख़ुद अपने से ज़्यादा बुरा, ज़माने में कौन है ?
मैं इसलिए औरों की बुराई पे नही लिखता.

कुछ तो आदत से मज़बूर हैं और कुछ फ़ितरतों की पसंद है
ज़ख़्म कितने भी गहरे हों?? मैं उनकी दुहाई पे नही लिखता.

दुनिया का क्या है हर हाल में, इल्ज़ाम लगाती है,
वरना क्या बात कि मैं कुछ अपनी सफ़ाई पे नही लिखता.'

शान-ए-अमीरी पे करू कुछ अर्ज़ मगर एक रुकावट है,
मेरे उसूल, मैं गुनाहों की कमाई पे नही लिखता.

उसकी ताक़त का नशा "मंत्र और कलमे" में बराबर है !!
मेरे दोस्तों!! मैं मज़हब की, लड़ाई पे नही लिखता.

समंदर को परखने का मेरा, नज़रिया ही अलग है यारों!!
मिज़ाज़ों पे लिखता हूँ मैं उसकी गहराई पे नही लिखता.

'पराए दर्द को , मैं ग़ज़लों में महसूस करता हूँ
ये सच है मैं शज़र से फल की, जुदाई पे नही लिखता.

'तजुर्बा तेरी मोहब्बत का' ना लिखने की वजह बस ये!!
'शायर' इश्क़ में ख़ुद अपनी, तबाही पे नही लिखता ।

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

नवोदय/ सुनील शर्मा की कविता


जिसे सोचता हूं खूब...

चाहत इस दिल की मुकम्मल हो न हो
जिंदगी में उसे पाने का मकसद जरूर है।

पंख कटे तो क्या, उड़ने की चाहत तो है
सपनों पर बंदिश तो दुनिया का दस्तूर है।

नाव डगमग डोलती पर नाखुदा है हिम्मती
और तूफानों से लड़ने का जज्बा भरपूर है।

झोंक कर खुद को आग में मिटता है पतंग
उल्फत की इन रस्मों में किसका कसूर है ।

इक चाहत मे बेबस ये भी कोई जीवन है
नाजुक सी एक चोट से हर अरमां चूर है।

जिसे सोचता हूं खूब, उसे चाहता हू खूब
होगा तो वही ‘सुनील’ जो खुदा को मंजूर है।