(एक)
स्मृति-शेष
बचपन की
स्मृतियों में ही शायद
अपने भीतर
ढेर सारा बचपना
संजोये हुए हैं लोग ।
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(दो)
दोहराव
बचपन के
दिनों को
याद करते हुए
आज मैंने सोचा
कि खुद को
दोहराने वाला
इतिहास आखिर
हमें क्यों नहीं दोहराता ?
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(तीन)
भरपाई
बचपन
नहीं आयेगा
लौटकर
इस दुःख को
कम करने के लिए
क्या पर्याप्त नहीं है
यह सुख
कि हम भी
कभी बच्चे थे...।
मंगलवार, 23 मार्च 2010
रविवार, 24 जनवरी 2010
नवोदय/ पीयूष शर्मा ‘पारस’ की कविता
जमाने को लगी हवा जमाने की
फितरत बदल गई जमाने के साथ इस जमाने की
पहले थी कुछ और मगर अब है और बात जमाने की।
ना वो प्यार है ना मिठास है अब इस जमाने में
बस रह गई हैं सिर्फ और सिर्फ बातें उस जमाने की।
कुछ ऐसी चली हवा कि बदल गई सब रीतें
ना दुआ ना सलाम पैसे में बदली प्रीत जमाने की।
वक्त ने बदले हालात तो आई याद उस जमाने की
कि लग गई हो जैसे नजर उस जमाने को इस जमाने की।
(श्री पीयूष शर्मा पारस दैनिक भास्कर चूरू में बतौर रिपोर्टर कार्यरत हैं।)
फितरत बदल गई जमाने के साथ इस जमाने की
पहले थी कुछ और मगर अब है और बात जमाने की।
ना वो प्यार है ना मिठास है अब इस जमाने में
बस रह गई हैं सिर्फ और सिर्फ बातें उस जमाने की।
कुछ ऐसी चली हवा कि बदल गई सब रीतें
ना दुआ ना सलाम पैसे में बदली प्रीत जमाने की।
वक्त ने बदले हालात तो आई याद उस जमाने की
कि लग गई हो जैसे नजर उस जमाने को इस जमाने की।
(श्री पीयूष शर्मा पारस दैनिक भास्कर चूरू में बतौर रिपोर्टर कार्यरत हैं।)
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