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सोमवार, 14 दिसंबर 2009

नवोदय/ सुनील शर्मा की कविता


जिसे सोचता हूं खूब...

चाहत इस दिल की मुकम्मल हो न हो
जिंदगी में उसे पाने का मकसद जरूर है।

पंख कटे तो क्या, उड़ने की चाहत तो है
सपनों पर बंदिश तो दुनिया का दस्तूर है।

नाव डगमग डोलती पर नाखुदा है हिम्मती
और तूफानों से लड़ने का जज्बा भरपूर है।

झोंक कर खुद को आग में मिटता है पतंग
उल्फत की इन रस्मों में किसका कसूर है ।

इक चाहत मे बेबस ये भी कोई जीवन है
नाजुक सी एक चोट से हर अरमां चूर है।

जिसे सोचता हूं खूब, उसे चाहता हू खूब
होगा तो वही ‘सुनील’ जो खुदा को मंजूर है।

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