शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009
बिना क्षितिज के आसमान हो गए...
कुमार अजय की एक ग़ज़ल
सुविधाओं के ही घमासान हो गए
वेतन बढे, छोटे मकान हो गए।
दूर अपनों से इस कदर हुए
बिना क्षितिज के आसमान हो गए।
जिंदगी और मौत भी प्यारी लगीं
प्यार में दोहरे रूझान हो गए।
उल्फत में निकले लब्ज जाने कब
रामधुन-कीरतन-अजान हो गए।
मुश्किलें इस कदर पड़ी मुझ पर
जिंदगी के मसले आसान हो गए।
जिनमें सबकी अपनी अपनी कब्रे हैं
नाजुक आशियाने ही श्मसान हो गए।
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