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शनिवार, 14 नवंबर 2009

कुमार अजय की गजलें


एक लब्ज न बोलूंगा...


तिरे पहलू में बैठकर जी भर के रो लूंगा
नाराजगी भी निभाऊंगा, एक लब्ज न बोलूंगा।


तुम्हारी मुहब्बत में दर्द के दरिया से कभी
निजात हो भी गई तो फिर से दिल डुबो लूंगा।


तुझे मुझसे डर है, मुझे तुम्हारी फिकर है
आखिर मैं क्यूं जहर तेरी जिंदगी में घोलूंगा।


इस घने जंगल में आदमी से डरता हूं मैं
कोई जानवर मिले तो तय है साथ हो लूंगा।


मेरी जेब में हादसों के हसीन मोती भरे हैं
वक्त मिला तो उन्हें आंसू के धागे में पिरो लूंगा।


बाहर दम घुटे है, एक कब्र बख्श दे मौला
तेरे बंदों से नजर बचाके चैन से तो सो लूंगा।

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राहतों का मौसम है...

एक मुट्ठी धूप की और एक मुट्ठी छांव की
राहतों का मौसम है ये मिट्टी मेरे गांव की।

जूते को सिर पर रखो तो मरजी आपकी
वरना तो ये जरूरत है महज पांव की।

कोयल पर जान देना तो रिवाज है यहां का
कभी कशिश तौल तू किसी कांव-कांव की।

बांहें फैला बेशक, आकाश को थाम भी ले
पर देख खिसक न जाए जमीन पांव की।

जिंदगी की बिसात पर नये मोहरे खरीद
अब तो दुकानें खुल गईं हर पेंच-दांव की।
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खामोशी के मतलब हजार हैं...


चोट खाईये और मुस्काराईये
दर्द की हदों को भी आजमाईये।

दोस्तों के खंजर सह लीजिये
दुश्मनों से दोस्ती मगर निभाईये।

आपकी खामोशी के मतलब हजार हैं
लब खोलिये, ना मुझको उलझााईये।

बाद सदियों के चाहा है किसी को
हमारी ये जुर्रत ना यूं ठुकराईये।

रिश्तों में दलाली मुनासिब तो नहीं
नजदीक आईये, फासले मिटाईये।

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खूबसूरत की गलियों में...


बाअदब बामुलाहिजा ये फरमा रहे हैं
तिरी दुनिया से रूखसत हुए जा रहे हैं।

जफा ही झेलने की आदत है मिरे दिल को
आप फालतू ही वफाएं किये जा रहे हैं।

हसीं खंजर से मरना भी कितना हसीं है
खूबसूरत की गलियों में आ जा रहे हैं।

कभी जश्ने-वफा में होश खोया किया
गमे-बेवफाई में आज पिये जा रहे हैं।

एक वक्त है जो जख्म भरने चला है
एक हम हैं जो उन्हें हरा किये जा रहे हैं।

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एक नाजनीं मेरे तसव्वुरात में...

ना जाने कौन सी बात का वहम धरती है
कि रोशनी मेरे दरीचे में आने से डरती है।

सबको पीछे छोड़ आने के बाद आजकल
जिंदगी खुद को तनहा महसूस करती है।

जिक्रे-मुहब्बत से ही आज परहेज है मगर
कुछ पुरानी गलतियां जरूर अखरती हैं।

तरक्कीपसंद शहर को अब याद नहीं शायद
एक गली तेरे घर के पीछे से भी गुजरती है।

सबब-ए-हादिसा-ए-कत्ले-खुद पर सोचता हूं तो
एक नाजनीं मेरे तसव्वुरात में उभरती है।
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4 टिप्‍पणियां:

  1. इन सब मे एक गज़ल अच्छी लगी -

    एक मुट्ठी धूप की और एक मुट्ठी छांव की
    राहतों का मौसम है ये मिट्टी मेरे गांव की।

    जूते को सिर पर रखो तो मरजी आपकी
    वरना तो ये जरूरत है महज पांव की।

    कोयल पर जान देना तो रिवाज है यहां का
    कभी कशिश तौल तू किसी कांव-कांव की।

    स्वागत व शुभकामानाएँ

    जवाब देंहटाएं
  2. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी टिप्पणियां दें

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  3. Sab rachnayen nahee padhee...ek sujhav hai...ek baar me ekhee post karen..!
    Aadmi sabse daravna janwar hai!

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